लोक
लोक गीत, संगीत, नृत्य आदि एक क्षेत्र की पारंपरिक सांस्कृतिक और समृद्धि को दर्शाते हैं। इस जिले के लोगों के जीवन प्रकृति और धर्म से काफी निकटता से जुड़ा है, इसलिए लोक गतिविधियां भी अंतर्निहित रिवाजों और परंपराओं से निकटता से जुडी हैं।
लोक गीत
इस क्षेत्र के लोक गीत एक बुनियादी सादगी औरगैर जटिल भावनाओं को दर्शाते हैं, जो काफी हद तक शांति और प्रकृति के खुले वातावरण से निकलते हैं। गाने के विषय विशेष रूप से विभिन्न कृषि गतिविधियों, उनके मुख्य निवास और भूमि के लिए महान प्यार से जुड़ा हुए है। अप्रत्याशित रूप से लोक गीत कुछ सामाजिक-आर्थिक समस्याएं जेसे बाढ़, सूखे और लोगो की बीमारी उपचार को उजागर करते हैं। कुछ लोक गीत बहादुरी और किंवदंतियों की कहानियां सुनाते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में लोकगीत की परंपरा अभी भी बहुत ज़िंदा है। गांवों में, खेतों में काम करते हुए या जंगल में चारा इकट्ठा करते हुए महिलाएं इन लोकगीतों को गाती हैं। समूह गायन की कई शैलियों हैं, कभी-कभी तालबद्ध नृत्यों के साथ। इनमें “झोडा” और “थदया” शामिल हैं । “खुदेड” गाने नै दुल्हन के अपने पैतृक घर से दूर होने की पीड़ा को महसूस करता है। “मंगल” गाने विवाह समारोह और अन्य “संस्कार” समारोह के अवसर पर सुने पड़ते हैं। “पंवारस” गीतों में युद्धों में वीरता की प्रशंसा में गए जाते हैं।
लोक नृत्य
इस क्षेत्र के लोक नृत्य मुख्य रूप से मनोरंजन और स्थानीय देवताओं की को खुश करने के लिए किया जाते है। आम तौर पर इन्हें समूहों में किया जाता है । कुछ नृत्य लोक गीतों के साथ होते हैं और उसी नाम से जाने जाते हैं। ये लोक नृत्य मुख्य रूप से “नटराज”, भगवान शिव की भक्तियो और महाभारत के “पांडव” के गढ़वाल हिमालय के साथ अनुबन्ध से प्रभावित होते हैं। धार्मिक लोक नृत्यों में, ‘पश्वा’ का नृत्य,जिसमे भगवान की आत्मा एक व्यक्ति के अंदर आ जाती है , जिसमे ‘जागर’ गाने सबसे ज्यादा आम है। ‘जगरी’ इन नृत्यों को निर्देशित करता है और विशेष रूप से भगवान या देवी के ‘वार्ता’ (कहानी गाने) के अनुसार ‘पश्वा’ (नर्तक) नृत्य करता है। ‘पांडव’ नृत्य महाभारत में ‘पांडव’ की कहानी पर आधारित हैं और इन्हें ‘मंदान’ नामक एक खुले मैदान में ‘ढोल और दमन’ के ताल में किया जाता है।
क्षेत्र के सामाजिक समूह नृत्य समृद्ध सामाजिक परंपराओं और जीवन की खुशियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस तरह की नृत्यों के उदाहरण हैं- थडिया, चौफुला, होली, सर्रोण, चेप्ली आदि। थडिया नृत्य सामान्य तौर पर मेलों और त्यौहारों में किया जाता है, जिसमें नर्तक दो समूहों में विभाजित हो जाते है और नर्तक एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखते हुए एक अर्ध चक्राकार में नृत्य करते हैं। ‘चौफुला’ नृत्य का गढ़वाली नृत्य के बीच एक विशिष्ट स्थान है। यह मानवीय जीवन में वास्तविकता और सुख के संपूर्ण संघ का प्रतिनिधित्व करता है। ‘चौफुला’ का अर्थ है ‘चारों ओर फूलों की वर्षा होली में गांवों के प्रत्येक घर के सामने नृत्य करने के साथ समूह एक गांव से दूसरे गाँव में जाते हैं। ये नृत्य एक चक्र में समूहों द्वारा ‘होली’ के गाने गाते हुए ‘ढोलक’ के ताल पर कियें जाते हैं। ‘सर्रॉन’ नृत्य को शादी के अवसर किया जाता है जिसमें नर्तक अच्छी अच्छी पोशाक पहनकर ‘बारात’ के आगे आगे चलते है ।
लोक संगीत
इस क्षेत्र का लोक संगीत आम तौर पर लयबद्ध होता है जो लोक नृत्य की गतिशील शैली को परिलक्षित करता है। संस्कार से संबंधित गीत बहुत मधुर होते हैं संगीत वाद्ययंत्रों की ताल पर किया जाते हैं। इस क्षेत्र के पारंपरिक लोक संगीत वाद्ययंत्र ‘ढोल और दमन’, ‘दौर’ और थाली’, ‘तुर्री’, ‘रणसिंघा ‘, ‘ढोलकी’, ‘मसक बाजा’, ‘भंकोरा’ इत्यादि हैं। आजकल, हार्मोनियम और तबले भी उपयोग होता है ।इस क्षेत्र के लोक संगीत में पारंपरिक वाद्ययंत्रो ‘औजी’, ‘बधी’, ‘बाजगी’ का बहुत योगदान है। ‘ढोल और दमन’ को एक साथ ‘आजी’ द्वारा बजाय जाता है ये क्षेत्र के मुख्य लोक संगीत वाद्ययंत्र हैं और ज्यादातर अवसरों पर इन्हें बजाया जाता है। डौर और थाली” ‘घड़ियाल’ के अवसर ‘जागर’ गाने और नृत्य के साथ पर बजाये जाते है। वाद्ययंत्र पीतल या तांबे के बने होते हैं “देव-पूजन” के अवसर पर “भंकोरा” ऊंची जाति द्वारा बजाया जाता है। “ढोलकी” आमतौर पर पारंपरिक वाद्य यंत्र “बाघी” या “धाकी” द्वारा प्रयोग किया जाता है।