मेले और त्योहार
मेले और त्योहार एक-दूसरे से मिलने के अवसर होते है । प्राचीन समय में, जब संचार और परिवहन की कोई ऐसी सुविधाएं नहीं थीं, तो इन मेलों और त्यौहारों ने रिश्तेदारों और दूर दूर भौगोलिक स्थानों पर रहने वालों दोस्तों के साथ मुलाकात जेसे सामाजिक सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इन आयोजनों पीछे धार्मिक महत्व और सामाजिक संदेश जेसे सामाजिक महत्व होते है। इस क्षेत्र के अधिकांश त्योहार पौराणिक परंपराओं पर आधारित हैं।
गढ़वाल में मकर संक्रांति जिसे उत्तरायनी भी कहते है खिचड़ी संक्राति के रूप में मनाया जाती है जिसमें ‘उड़द दाल दल’ से खिचड़ी तैयार की जाती है और ब्राह्मणों को चावल और उड़द दाल दान की जाती । इस दिन, जिले के डंडामंडी, थलनदी आदि विभिन्न स्थानों पर गिन्दी मेलों का आयोजन किया जाता है। ‘बसंत पंचमी’, जिसे ‘श्रीपंचमी’ भी कहा जाता है, पर ‘क्षेत्रपाल’ या भूमि देवता की पूजा की जाती है । ‘विषुवत संक्रांति पर नए साल की शुरुवात होती है जिसे ‘विखोति’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन कुछ स्थान जेसे पोखल के पास त्रिवणी, देवलगढ़ आदि स्थानों परमेले आयोजित किए जाते हैं। इसी तरह, ‘होली’, ‘दीपावली’, ‘शिवरात्रि’, ‘विजयदशमी’, ‘रक्षाबंधन’ आदि त्यौहार हिंदू परंपराओं के अनुसार माने जाते हैं।
गिन्दी मेला
‘मकर संक्रांति’ के दिन जिले के दक्षिणी हिस्से में कुछ स्थानों पर ‘गिन्दी’ मेलों का आयोजन किया जाता है। पहाड़ों में इन मेलों की अपनी विशिष्टता और महत्व है। ‘माघ’ माह के शुरुवात में, पूरे क्षेत्र में कई मेलों का आयोजन होता है, लेकिन ‘डंडामंडी’ और ‘थलनदी’ का ‘गिन्दी’ मेला पूरे क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध है, जिसमे दूर-दूर के स्थानों से लोग भाग लेते हैं। ये मेले बहादुरी, आनन्द, साहस और प्रतिस्पर्धा के प्रतीक हैं। ग्रामीणों की दो टीमों में बांटकर मैदान में एक विशिष्ट प्रकार की गेंद से खेल खेला जाता है। इस खेल में, प्रत्येक टीम गेंद को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करती है और जीतने वाले ग्रामीण उत्सव और नृत्य करते हुए गेंद को अपने साथ ले जाते हैं।
श्रीनगर का वैकुण्ठ चतुर्दशी मेला
कार्तिक महीने के ‘शुक्ल चतुर्दशी’ के अवसर पर, जिसे ‘वैकुण्ठ चतुर्दशी’ भी कहा जाता है, श्रीनगर के कमलेश्वर महादेव मंदिर में मेले का आयोजन किया जाता है, जो न केवल मनोरंजन बल्कि कुछ परंपराओं से भी जुड़ा है। ‘वैकुण्ठ चतुर्दशी’ की रात, संतान रहित जोडे संतान प्राप्ति हेतु जलते दिए के साथ प्रार्थना करते हैं । यह कहा जाता है कि भगवान शिव हमेशा उनकी प्रार्थना का जवाब देते हैं। इससे पहले, यह मेला मंदिर परिसर में एक दिन के लिए आयोजित किया गया था। अब, इसे ‘नगरपालिका, श्रीनगर’ द्वारा पांच दिन तक बढ़ा दिया गया है जिसमें कई अन्य गतिविधियां शामिल हैं।
बिनसर मेला
हर साल ‘वैकुण्ठ चतुर्दशी’ और ‘कार्तिक पूर्णिमा’ पर, बिन्देश्वर महादेव मदिर में दो दिन के ‘बिनसर मेले’ का आयोजन किया जाता है । यह मंदिर में जिले के दूरस्थ और जिला सीमा क्षेत्र में स्थित ‘चौथान पट्टी’ और ‘धुधोतोली’ जंगलों के बीच के स्थित है जिसमें जिला पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा और रुद्रप्रयाग के विभिन्न क्षेत्रों से लोग भगवान शिव की पूजा करने के लिए आते है है। इसके कारण यह मेला गढ़वाल और कुमाओं क्षेत्रों के सांस्कृतिक विरासत का एक अच्छा मिश्रण है। इस अवसर पर, लोग इकठ्ठे होकर पूरी रात सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्रों की ताल पर जेसे ‘पांडव’ और ‘चौफुला’ नृत्य करते है और ‘मंगल’ और ‘खुदेद’ गाने गए जाते है।